आशुतोष कुमार सिंह
उत्तरप्रदेश सरकार 22 ब्रांडेड दवाइयों को सरकारी
अस्पताल के लिए खरीदने वाली है. जिन दवाइयों के नाम गिनाएं गए हैं, लगभग सभी साल्ट जेनरिक फार्म में
उपलब्ध हैं. फिर ब्रांडेड दवाइयां खरीदने की हड़बड़ी क्यों है. समझ से परे है.
सबसे अहम मसला है ‘कंट्रोल एम.एम.आर.पी’ यानी कंट्रोल मैक्सिमम रिटेल
प्राइस का. ज़रूरत है इस मसले पर काम करने की. उल्टे में हमारी सरकारें भी दवा
कंपनियों के दलालों के चक्कर में फंसती जा रही हैं. अगर दवाई की ख़रीद में सरकार
ठीक से मोल-भाव नहीं कर पायी तो निश्चित है जनता का पैसा पानी में जायेगा. यहाँ
ध्यान देने वाली बात यह है कि जेनरिक और ब्रांडेड दवाइयों के उत्पादन में जो लागत
आती है वह लगभग समान ही होती है. असल मूल्य तो बाजार में आकर बढ़ जाता है. अगर
सरकार अपने द्वारा तय किए गए मूल्य पर दवाई खरीदती है तब तो ठीक है, नहीं तो जनता के पैसों की बर्बादी
तय है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश जी हमारी बात को सुन रहे हों तो ज़रा
ध्यान दें…
गौरतलब है कि दवाओं में धांधली के
मामले पूरे देश से एक-एक करके सामने आने लगे हैं. झारखंड से ख़बर है कि झारखंड के लगभग
सभी दवा दुकानों में विभिन्न बीमारियों की सस्ती जेनरिक दवाएं उपलब्ध हैं, लेकिन डाक्टर भारी कमीशन के लालच
में मरीज़ के पुर्जों पर महंगी ब्रान्डेड दवाएं ही लिखते हैं. जानकारों का कहना है
कि जेनरिक दवा लिखने पर डाक्टर को कमीशन नहीं मिलता है. झारखंड से यह भी खबर आ रही
है कि झारखंड के सरकारी अस्पतालों में मरीजों को सस्ती जेनरिक दवाएं उपलब्ध कराने
में सिविल सर्जन रुचि नहीं दिखा रहे. राज्य के सभी सदर अस्पतालों व मेडिकल कालेजों
में जेनरिक दवा की बिक्री के लिए औषधि केंद्र खोलने का सख्त निर्देश दिया गया था.
दो साल में भी इस तरह के केंद्र नहीं खोले जाने पर एनआरएचएम की तत्कालीन अभियान
निदेशक आराधना पटनायक ने इसके लिए एक माह का समय सभी सिविल सर्जनों को दिया था. 9 जुलाई को यह समय सीमा खत्म हो गई.
लेकिन एक भी जिले में केंद्र नहीं खुल सका. सिविल सर्जनों द्वारा स्थल चिह्नित
करने तथा लाइसेंस लेने की प्रक्रिया शुरू कर एक तरह से खानापूर्ति की गई.
एक चौंकाने वाली खबर छत्तीसगढ़ से
है. बिलासपुर से आई ख़बर में बताया गया है कि जेनेरिक दवाइयों के ज़रिए महंगे इलाज
को सस्ता बनाने का सरकारी दावा खोखला है. राज्य में जेनेरिक दवा के नाम पर
जेनेरिक-ब्रांडेड दवाओं की बिक्री की जा रही है. इनके एवज में दोगुने से अधिक कीमत
ली जा रही है. इतना ही नहीं, सरकारी अस्पताल के मरीजों को झांसा देने के लिए रेडक्रास
मेडिकल शॉप द्वारा इन दवाओं पर 40 फीसदी तक की छूट दी जा रही है. इस बावत दैनिक भास्कर अपने पड़ताल
में इस नतीजे पर पहुंचा है कि बिलासपुर के रेडक्रास मेडिकल शॉप में जेनेरिक दवा के
नाम पर मरीजो को लूटा जा रहा है. यानी यहाँ भी एम.एम.आर.पी का भूत लोगों को परेशान
किए हुए है.
ऐसे में सबसे अहम सवाल ये उठता है
कि इस मसले पर सभी राज्य एक जुट होकर जनहित में कोई कारगर क़दम उठा सकते हैं.
दवाओं की एम.एम.आर.पी को आखिर कब नियंत्रित किया जायेगा..? क्या हमारी सरकारें कंपनियों की
कठपुतली ही बनी रहेंगी..? सवाल अनंत
है. जवाब एक ही है जबतक ‘कंट्रोल
एम.एम.आर.पी’ पर सरकारें
गंभीर नहीं होगी देश की जनता हेल्थ के नाम पर इसी तरह लूटी जाती रहेगी.
(लेखक प्रतिभा जननी सेवा संस्थान के
नेशनल को-आर्डिनेटर व युवा पत्रकार हैं.)
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