शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

दवाइयों में बोनस का खेल!



आशुतोष कुमार सिंह

सरकारी टैक्स बचाने एवं अपने ओवर प्रोडक्शन को खपाने, व केमिस्टों को मालामाल करने के लिए दवा कंपनियां एक नायाब खेल-खेलती है। जिससे आम जनता की कौन पूछे खुद सरकार बेखबर है। इस खेल का नाम है दवाइयों पर ‘बोनस’ अथवा ‘डिल’ का चलन। यानी अगर केमिस्ट किसी कंपनी की एक स्ट्रीप खरीदता है तो नियम के हिसाब से उससे एक स्ट्रीप का पैसा लिया जाता हैं लेकिन साथ ही में उसे एक स्ट्रीप पर एक स्ट्रीप फ्री, या 10 स्ट्रीप पांच स्ट्रीप फ्री दे दिया जाता है। बिलिंग 10 स्ट्रीप की ही होती है। इससे एक ओर सरकार को टैक्स नहीं मिल पाता वहीं दूसरी ओर कंपनियां केमिस्टों को मालामाल कर देती हैं। और उपभोक्ता एम.आर.पी. पर दवाई खरीदने के लिए अभिशप्त रहता है। इस खेल को कुछ दवाइयों के उदाहरण के साथ समझा जा सकता है।
      ‘मैन काइंड’ कंपनी द्वारा निर्मित ‘अनवांटेड किट’ भी स्त्रीरोग में इस्तेमाल में आती है। इसकी एम.आर.पी भी 499 रूपये प्रति किट है। रिटेलर को होलसेलर 384.20 रूपये में देता है। लेकिन सबसे दुःखद आश्चर्य यह है कि एक किट पर मैनकाइंड कंपनी 6 किट फ्री में देती हैं। बाजार की भाषा में इसे एक पर 6 क डिल कहा जाता है। इस तरह से रिटेलर को एक किट 54.80 रूपये का पड़ा। अगर इस मूल्य को एम.आर.पी से तुलना करके के देखा जाए तो एक कीट पर रिटेलर को 444 रूपये की बचत हो रही है यानी लगभग 907.27 %।
      इसी तरह सिपला कंपनी द्वारा निर्मित एम टी पी किट स्त्रीरोग में इस्तेमाल में आती है। इसकी एम.आर.पी 499 रूपये प्रति किट है। रिटेलर को होलसेलर 384.20 रूपये में देता है। लेकिन सबसे दुःखद आश्चर्य यह है कि इस एक किट को बेचने पर रिटेलर को कंपनी की ओर से पांच किट मुफ्त में दी जाती है, इस हिसाब से दुकानदार को यह दवा 64.03 रूपये का पड़ा। अगर इस मूल्य को एम.आर.पी से तुलना करके के देखा जाए तो एक कीट पर रिटेलर को 435 रूपये की बचत हो रही है यानी लगभग 780%। 

     एक प्रतिष्ठित कंपनी जिसका मार्केट में बहुत बढ़िया साख है, उसकी दवाइयों की गुणवत्ता को भी डाक्टर खूब तारीफ करते हैं। इस तरह से देश को लूटवा रही हैं तो देश को इस तरह की कंपनियों के खिलाफ क्या करना चाहिए!! इसी तरह मार्केट में दवाइयों पर प्रत्येक दवा कंपनी अपने हिसाब से बोनस देती है।

प्रतिभा जननी सेवा संस्थान ने की दवा दुकानदारों से हड़ताल पर न जाने की अपील

प्रेस विज्ञप्ति-15.10.12

प्रतिभा जननी सेवा संस्थान के नेशनल संयोजक आशुतोष कुमार सिंह ने महाराष्ट्र के दवा दुकानदारों से अपील की है कि वे जनहित में हड़ताल पर जाने की अपनी हठ को छोड़ दें। प्रशासन से बातचीत करें। लोगों को सुविधा देना आपका परम कर्तव्य है। अपने कर्तव्य-पथ से भटके नहीं।
उन्होंने प्रेस-विज्ञप्ति के माध्यम से बताया कि 'दवा दुकानदारों का तीन दिनों के लिए हड़ताल पर जाना दुःखद है। अगर एफ.डी.ए दवा दुकान पर फार्मासिस्ट को अनिवार्य रूप से रहने की बात कह रहा है तो इसमें गलत क्या है। इतने सालों से दवा दुकानदारों ने अपने मन की ही तो की है और अब सरकार पर दबाव बना है तो उसने अपने बीमार सिस्टम को दुरूस्त करने का काम शुरू किया है। जनहित में केमिस्टों को सरकार के इस पहल के साथ जाना चाहिए। अरे भाइयों आपका राष्ट्र स्वस्थ होगा तो आप भी स्वस्थ रहेंगे। आपलोग क्या चाहते हैं कि आपका पड़ोसी बीमार रहे। ऐसे में क्या आप चैन से सो सकते हो...नहीं न! तो आइए न... भटक क्यों रहे हैं! स्वस्थ भारत के निर्माण में अपना योगदान सुनिश्चित करें। आपलोगों पर भारत को स्वस्थ रखने की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है'। ज्ञात हो की प्रतिभा जननी सेवा संस्थान " स्वस्थ्य भारत विकसित भारत " अभियान चला रही है।

दवा दुकानदारों से सरकारी रेट लिस्ट मांगे

                                                 आम जनता से अपील


सरकारी नियम यह कहता हैं कि प्रत्येक दवा विक्रेता के पास सरकार द्वारा दी गयी सरकारी रेट लिस्ट होता है और उपभोक्ता दवा खरीदते समय उस रेट लिस्ट को केमिस्ट से मांग सकता है ताकि उसे मालूम चले की उसे जो दवाइयां दी गयी हैं उसका वास्तविक मूल्य क्या है? तो क्या आपने कभी सरकारी रेट लिस्ट दवा दुकानदार से मांगा है...अगर नहीं तो आज से ही मांगना शुरू कीजिए...अगर दुकानदार यह लिस्ट नहीं देता 

हैं तो इसके लिए आप नेशनल फार्मास्यूटिकल्स प्राइसिंग ऑथोरिटी में शिकायत कर सकते हैं। अथवा आप अपने जीला के ड्रग इस्पेक्टर, ड्रग कंट्रोलर से भी शिकायत कर सकते हैं। 1800111255 एन.पी.पी.ए का हेल्पलाइन नम्बर है जिसपर आप कॉल कर के इसके बारे में जानकारी मांग सकते हैं। ध्यान रहे कि सरकार ने 74 जरूरी दवाइयों की सेलिंग प्राइस तय कर रखी है। इस मूल्य से ज्यादा पर कोई भी दवा कंपनी अपनी दवा नहीं बेच सकती है। अगर कोई कंपनी इस नियम का उलंघन करती हैं तो उसके खिलाफ डीपीसिओ-1995 के में असेंशियल कोमोडिटिज एक्ट,1955 के सेक्सन सात के तहत डीपीसीओ के नियमों को तोड़ने हेतु कम से कम तीन महीने की सजा जो बढ़कर सात साल तक की हो सकती है और इतना ही नहीं इसका उलंघन करने वाले पर जुर्माना भी लगाया जा सकता है।


                                                                                                                 आशुतोष कुमार सिंह
                                                                                       नेशनल को-आर्डिनेटर, प्रतिभा जननी सेवा संस्थान, मुम्बई
                                                                                                        ईमेल-pratibhajanani@gmail.com

देश को लूट रही दवा कंपनियों पर क्रिमनल केस दर्ज करे सरकार

                                       सरकार से अपील


बियोंड हेडलाइन्स पर आज प्रकाशित खबर में बताया गया है कि देश की लगभग 700 दवा कंपनियों के खिलाफ एन.पी.पी.ए पिछले कई वर्षों से दवाइयों के मूल्य ज्यादा लिखने के लिए आर्थिक दंड लगाते आया है। ताजा आकड़ों के हिसाब से ओवरचारजिंग के 871 मामलों में दवा कंपनियों पर कुल 2574 करोड़ 95 लाख 84 हजार रूपये का जुर्माना लगाया गया है। जिसमें महज 234 करोड़ 72 लाख 61 हजार रूपये सरकार वसूल पायी है। सरकार के इस पहल से यह स्पष्ट हो गया है कि ये कंपनियां देश को लगातार 

आर्थिक नुकसान पहुंचा रही है, जिससे देश को आर्थिक नुकसान पहुंच रहा है व साथ ही मंहगी दवाइयों के 

कारण लाखों लोग मौत के गाल में समा रहे हैं। लगभग 3 प्रतिशत जनता गरीबी रेखा से ऊपर नहीं उठ पा रही है। उपरोक्त सभी बातों को एक साथ जोड़कर देखा जाए तो यह बहुत बड़ा अपराध है। इस अपराध के 

लिए मुनाफाखोर दवा कंपनियों के खिलाफ आपराधिक केस दर्ज कर उन्हें दंड देने की व्यवस्था सरकार 

करे। नहीं तो एक और जनआंदोलन के लिए तैयार हो जाए।

( आशुतोष कुमार सिंह, नेशनल को-आर्डिनेटर, प्रतिभा जननी सेवा संस्थान)
नोटः 5.10.2012 को जारी

दवाइयों की गुणवत्ता की जाँच नहीं के बराबर!

कंट्रोल एम.एम.आर.पी कैंपेन के तहत

• दवाइयों की गुणवत्ता संदेह के घेरे में
• आर.टी.आई से हुआ खुलासा

आशुतोष कुमार सिंह


दवाइयों के नाम पर किस तरह लूट मची है इसका एक और उदाहरण सामने आया है। इतनी महंगी दवाइयां खरीदने के बाद भी इस बात की कोई गारंटी नहीं हैं कि जो दवा आप खा रहे हैं वह गुणवत्ता के मानक को पूरी कर रही हो।
आर.टी.आई कार्यकर्ता अफरोज आलम साहिल ने जब नेशनल फार्मास्यूटिकल्स प्राइसिंग ऑथरिटी (एन.पी.पी.ए) से सूचना के अधिकार तहत यह जानकारी मांगी कि पूरे देश में किस जिला, राज्य में दवाइयों को रैंडम सैंपलिंग के लिए सबसे ज्यादा भेजा गया है? इस सवाल के जवाब में एन.पी.पी.ए का उत्तर चौकाने वाला है। अंग्रेजी में दिए अपने जवाब में एन.पी.पी.ए लिखता हैं ‘Most of the random sampling has been done from Delhi/ New Delhi during the current year.’ यानी इस साल रैंडम सैम्पलिंग के ज्यादातर कार्य दिल्ली और एन.सी.आर में ही कराए गए हैं। इस जवाब से कई सवाल उठते हैं। क्या पूरे देश में जो दवाइयां बेची जा रही हैं उनकी जाँच की जरूरत नहीं हैं? क्या केवल दिल्ली और एन.सी.आर के लोगों को ही गुणवत्ता परक दवाइयों की जरूरत है? 
इस तरह की लापरवाही से यह साफ-साफ दिख रहा हैं कि देश की जनता के स्वास्थ्य को लेकर सरकारी व्यवस्था पूरी तरह से अव्यवस्थित है।
ऐसे में यह अहम सवाल उठता हैं कि देश के स्वास्थ्य के साथ कब तक इस तरह से लुकाछिपी का खेल चलता रहेगा! महंगी दवाइयों से त्रस्त जनता को गुणवत्तापरक दवाइयां भी न मिले तो आखिर वो करे तो क्या करे!

एन.पी.पी.ए दवाइयों के मूल्य कैसे निर्धारित करेगी?

कंट्रोल एम.एम.आर.पी कैंपेन के तहत


• एन.पी.पी.ए को नहीं मालूम हैं देश में कितनी दवा कंपनियां!
• आर.टी.आई से मिली जानकारी


आशुतोष कुमार सिंह

सरकार ने 348 दवाइयों को राष्ट्रीय जरूरी दवा सूची में डालने का मन बना रही है। राष्ट्रीय दवा नीति-2011 
को ग्रुप्स ऑफ मिनिस्टर्स ने स्वीकार कर लिया हैं और अपना अनुमोदन के साथ इसे कैबिनेट की मंजूरी के लिए इसी हफ्ते भेजने वाली है। सरकार के कथनानुसार अब ये दवाइयाँ सस्ती हो जायेंगी। इन दवाइयों के मूल्य निर्धारण की जिम्मेदारी राष्ट्रीय औषध मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एन.पी.पी.ए) की है। एन.पी.पी.ए ने एक आर.टी.ई के जवाब में कहा है कि उसे यह नहीं मालूम की देश में कितनी दवा कंपनियां है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि दवाइयों के मूल्य को निर्धारित करने की जिम्मेदारी जिस सरकारी प्राधिकरण की है, उसे ही नहीं मालूम हैं कि देश में कितनी दवा कंपनियां हैं तो ऐसे वह किस आधार पर दवाइयों के मूल्यों का निर्धारण करेगी? साथ ही वह दवा कंपनियों की मनमानी को कैसे रोकेगी? गौरतलब है कि जाने-माने आर.टी.ई कार्यकर्ता अफरोज आलम साहिल ने आर.टी.ई डालकर एन.पी.पी.ए से पूछा था कि देश में कितनी दवा कंपनियां है जिसके जवाब में एन.पी.पी.ए ने कहा था कि उसके पास देश की तमाम दवा कंपनियों का लिस्ट नहीं हैं और उसे यह भी नहीं मालूम हैं कितनी दवा कंपनियां है। 

( लेखक कंट्रोल एम.एम.आर.पी कैंपेन चला रही प्रतिभा जननी सेवा संस्थान के नेशनल को-आर्डिनेटर व युवा पत्रकार हैं )

सच में गरीबों को सस्सी दवाइयां मिल पायेंगी!!




आशुतोष कुमार सिंह




महंगाई की मार से त्रस्त जनता के लिए एक सुकुन भरी खबर आई है कि उन्हें जरूरी दवाइयाँ सस्ती   मिलेंगी। शरद पवार की अध्यक्षता में बनी मंत्रियों के समूह ने राष्ट्रीय दवा नीति-2011 को मंजूरी देते हुए कैबीनेट के पास भेज दिया है। इस फैसले से अब देश में 348 दवाइयाँ मूल्य नियंत्रण के दायरे में आ जायेंगी। अभी तक 74 दवाइयों को ही मूल्य नियंत्रण के दायरे में रखा गया था।
ऊपरी तौर पर सरकार का यह फैसला स्वागत योग्य लगता हैं। लेकिन जब इसकी बारीकियों को समझने का प्रयास किया जायेगा तो ऐसा लगेगा कि यह तो ऊंट के मुंह में जीरा के समान है।
              जाहिर है पिछले तीन-चार महीनों से मीडिया में लगातार यह खबर आ रही हैं कि दवा कंपनियाँ 10 की दवा 100 रूपये में बेच रही हैं। दवाइयों के मूल्य लागत मूल्य से कई गुणा बढ़ा कर तय की जा रही है। खबरों में यह भी बताया जा रहा है कि पहले से मूल्य नियंत्रण के दायरे में जो दवाइयां हैं वे भी सरकारी नियम की अवहेलना करते हुए ज्यादा मूल्य पर बेची जा रही हैं। ऐसे में यह सवाल उठता हैं कि क्या कुछ दवाइयों को मूल्य नियंत्रण की श्रेणी में ला देने भर से गरीबों का भला हो जायेगा। गौरतलब है कि हेल्थ पर कुल खर्च का 72 प्रतिशत खर्च केवल दवाइयों पर होता हैं। एक सरकारी शोध में यह भी कहा गया हैं कि प्रत्येक साल देश के तीन प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे केवल महंगी दवाइयों के कारण रह जाते हैं। गरीबी मिटाने का दावा करने वाली सरकार देश में बेची जा रही लगभग 40000 दवाइयों में से 348 को मूल्य नियंत्रण की श्रेणी में लाकर कितना बड़ा कार्य करने जा रही हैं अपने आप में बहुत बड़ा सवाल है।
         पिछले दिनों आर टी आई कार्यकर्ता अफरोज आलम साहिल ने राष्ट्रीय औषध मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एन.पी.पी.ए ) से सूचना के अधिकार के तहत दवाइयों से संबंधित कुछ जानकारियाँ मांगी थी। एन.पी.पी.ए ने जो जानकारी उपलब्ध कराई है वह चौकाने वाली है। मसलन एन.पी.पी.ए को नहीं मालूम हैं कि देश में कितनी दवा कंपनियां हैं। जाँच के लिए दवाइयों की सैप्लिंग केवल दिल्ली और एन.सी.आर से ही उठाए गए हैं। 
           ऐसे में कई सवाल उठते हैं कि जब मूल्य निर्धारण करने वाली सरकारी प्राधीकरण को यह नहीं मालूम हैं कि देश में कितनी दवा कंपनियां हैं तो वह किस आधार पर दवा कंपनियों द्वारा बेची जा रही दवाइयों के मूल्यों पर नज़र रख पायेगी! अगर केवल दिल्ली और एन.सी.आर में ही जाँच के लिए दवाइयों के सैम्पल लिए गए हैं तो बाकी देश में बेची जा रही दवाइयों की गुणवत्ता की जाँच कैसे होगी? इस तरह के तमाम सवाल हैं जिनका उत्तर दिए बगैर सरकार द्वारा 348 जरूरी दवाइयों को मूल्य नियंत्रण के अधिन करने का फैसला कारगर नहीं हो सकता।
          पिछले तीन-चार महीने से नई मीडिया (सोसल मीडिया) के माध्यम से गैर सरकारी संस्था ‘प्रतिभा-जननी सेवा संस्थान’ दवाइयों के नाम पर हो रही लूट को लेकर ‘कंट्रोल मेडिसन मैक्सिमम रिटेल प्राइस’ (कंट्रोल एम.एम.आर.पी) कैंपेन चला रही है। पिछले 14 सालों से लटके हुए राष्ट्रीय दवा नीति को ग्रुप्स ऑफ मिनिस्टर्स द्वारा अनुमोदित करने को लेकर एक दबाव इस कैंपेन के कारण भी बना हैं। इस कैंपेन ने आम लोगों को दवाइयों में हो रही धांधली के प्रति सचेत किया है। इसी बीच महंगी दवाइयों के मूल्य को नियंत्रित करने को लेकर लखनऊ की सामाजिक कार्यकर्ता नूतन ठाकुर ने लखनऊ हाइकोर्ट में में एक जनहित याचिका भी दायर किया हैं। जिस पर आगामी 3 अक्टूबर को सुनवाई होने की संभवाना है।
           भारत एक लोक-कल्याणकारी राज्य है । जहाँ जनता कि स्वास्थ्य की जिम्मेवारी सरकार की है। और अपने इस जिम्मेवारी को सरकार निभाती हुई नज़र भी आ रही है। आधिकारिक तौर पर भारत में गरीबी दर 29.8 फीसदी है या कहें 2010 के जनसांख्यिकी आंकड़ों के हिसाब से यहां 350 मिलियन लोग गरीब हैं। वास्तविक गरीबों की संख्या इससे से भी ज्यादा है। ऐसी आर्थिक परिस्थिति वाले देश में दवा कारोबार की कलाबाजारी अपने चरम पर है। मुनाफा कमाने की होड़ लगी हुयी है। धरातल पर स्वास्थ्य सेवाओं की चर्चा होती है तो मालुम चलता है कि हेल्थ के नाम पर सरकारी अदूरदर्शिता के कारण आम जनता लूट रही है और दवा कंपनियाँ, डाँक्टर और दवा दुकानदारों का त्रयी मालामाल हो रहे हैं।

असरदार हुआ ‘कंट्रोल एम.एम.आर.पी’ अभियान




प्रेस विज्ञप्ति

348 जरूरी दवाइयां हुयीं सस्ती!

दवा कंपनियों द्वारा आम लोगों को लगातार लूटे जाने की खबर के बीच में एक थोड़ी सी राहत भरी खबर आई है।
स्वयंसेवी संस्था प्रतिभा-जननी सेवा संस्थान द्वारा चलाए जा रहे नेशनल कैंपेन कंट्रोल मेडिसिन मैक्सिमम रिटेल प्राइस ‘कंट्रोल एम.एम.आर.पी’ के दबाव में आखिरकार राष्ट्रीय दवा नीति-2011 को ग्रुप्स ऑफ मिनिस्टर्स ने अपनी मंजूरी दे दी है। शरद पवार की अध्यक्षता में ग्रुप्स ऑफ मिनिस्टर्स ने अपने अनुमोदन के साथ इस ड्राफ्ट को कैबिनेट के पास भेजा दिया है। सरकार के इस फैसले 348 जरूरी दवाइयों के दाम कंट्रोल किए जा सकेंगे। गौरतलब है कि इसके पूर्व महज 74 दवाइयों का ही मूल्य नियंत्रित किया गया था। कंट्रोल एम.एम.आर.पी अभियान चलाने वाली गैर सरकारी संस्था प्रतिभा जननी सेवा संस्थान के नेशनल को-आर्डिनेटर आशुतोष कुमार सिंह ने सरकार के इस फैसले का स्वागत किया है और कहा है कि यह फैसला सराहनीय है लेकिन अभी भी ऊंट के मुंह में जीरा के समान ही है।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य का बुरा हाल/ Control M.M.R.P कैंपेन के तहत


सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को ठेंगा दिखा रही है सरकार!

• नेशनल फार्मास्यूटिकल्स प्राइसिंग पॉलिसी-2011 भी ठंढे बस्ते में
• दवा कंपनियों की लूट जारी लगातार जारी है
आशुतोष कुमार सिंह
भारत की जनता को सुप्रीम कोर्ट से बहुत ही उम्मीद होती है बावजूद इसके भारत सरकार सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का खुलेआम उलंघन कर रही है। नेशनल फार्मास्यूटिकल्स प्राइसिंग पॉलिसी-2002 में खामी होने के कारण सुप्रीम कोर्ट ने इसे स्थगति कर दिया था और जल्द ही जनहित में एक नयी फार्मा नीति बनाने का निर्देश दिया था। 10 मार्च 2002 को दिए अपने आदेश में कोर्ट ने कहा था कि जीवन रक्षक दवाइयों की रिवाज्ड प्राइस नए सिरे से 2 मई 2003 तक पूरे किए जाए और कोर्ट को इसकी जानकारी दी जाए। 2003 की बात कौन कहे आज 2012 जाने को है लेकिन सरकारी स्तर पर इस मसले पर केवल कभी-कभार विचार-विमर्श होते रहे हैं और राष्ट्रीय दवा मूल्य नीति अभी तक लागू नहीं हो पाया है। नेशनल फार्मास्यूटिकल्स पॉलिसी-2011 का ड्राफ्ट पिछले साल अक्टूबर में ही तैयार हो गया था लेकिन जनसुझाव के नाम पर इसे भी लटका कर रखा गया है। और तब से लेकर अब तक दवा कंपनियों की मनमानी बदस्तुर जारी है। आम जनता लूटी जा रही है और हमारी सरकार चैन की नींद सो रही है।

(लेखक प्रतिभा जननी सेवा संस्थान के नेशनल को-आर्डिनेटर व युवा पत्रकार हैं)
नोटः 23 सितम्बर, 2012 को लिखा