शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

कंट्रोल एम.एम.आर.पी. कैंपन का असर: कैंसर की दवा-मूल्यों में 64 प्रतिशत की कटौती



प्रतिभा जननी सेवा संस्थान द्वारा स्वस्थ भारत विकसित भारत अभियान के तहत चलाए जा रहे कंट्रोल एम.एम.आर.पी कैंपेन का असर दिखने लगा है। कैंसर की दवा बनाने वाली जानी मानी फार्मा कंपनी सिपला ने कैंसर की अपनी तीन दवाओं की कीमत 64 फीसदी घटाने की घोषणा की है। एरलोसिप, डोसीटैक्स, केपगार्ड नामक कैंसर की ये तीन दवाएं फेफड़े, मस्तिष्क, स्तन और शरीर में पनपने वाले दूसरे कई तरह के कैंसर के इलाज में काम आती हैं। एरलोसिप की 30 गोलियां अब 9000 रुपए में उपलब्ध होंगी जिनकी कीमत पहले 27,000 रुपए थी। फेफड़ों, मस्तिष्क और स्तन कैंसर में काम आने वाली दवा डोसीटैक्स पहले 3300 रुपए की थी लेकिन अब इसकी कीमत 1,650 होगी। इस फैसले की घोषणा करते हुए सिपला के महानिदेशक वाईके हामिद ने मीडिया को बताया कि, ''सस्ती दवाएं उपलब्ध कराने की दिशा में अपना सहयोग करते हुए सिपला एचआईवी और मलेरिया ही नहीं बल्कि कैंसर की दवाओं की कीमत भी घटा दी है।''
सिपला के इस फैसले का प्रतिभा जननी सेवा संस्थान ने स्वागत किया है। संस्थान के नेशनल-को-आर्डिनेटर आशुतोष कुमार सिंह ने कहा कि, आम लोगों को सस्ती दवाइयां उपलब्ध कराने की दिशा सिपला का यह कदम महत्वपूर्ण है। जरूरत इस बात की है कि ये कंपनियां बाकी जरूरी दवाइयों की एम.आर.पी. भी कम करें ताकि आम लोगों को और सहुलियत मिल सके।
गौरतलब है कि पिछले कई महीनों से प्रतिभा-जननी सेवा संस्थान कंट्रोल मेडिसिन मैक्सिमम रिटेल प्राइस कैंपेन चला रही है और इस अभियान के तहत पूरे देश में महंगी दवाइयों को लेकर आम जनता को जागरूक कर रही है। इस कैंपेन का ही नतीजा है कि सरकार ने जल्दीबाजी में पूरे देश के सरकारी अस्पतालों में मुफ्त जेनरिक दवाइयां उपलब्ध कराने की घोषणा की है। नेशनल असेन्सियल मेडिसिन लिस्ट की संख्या 74 से बढ़ाकर 348 करने जा रही है। दवाइयों का मूल्य नियंत्रण व निर्धारण करने वाली सरकारी नियामक एन.पी.पी.ए ने भी राष्ट्रीय हेल्पलाइन नम्बर शुरू किया।
(प्रेस विज्ञप्ति/ 10.11.12)

शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

दवाइयों में बोनस का खेल!



आशुतोष कुमार सिंह

सरकारी टैक्स बचाने एवं अपने ओवर प्रोडक्शन को खपाने, व केमिस्टों को मालामाल करने के लिए दवा कंपनियां एक नायाब खेल-खेलती है। जिससे आम जनता की कौन पूछे खुद सरकार बेखबर है। इस खेल का नाम है दवाइयों पर ‘बोनस’ अथवा ‘डिल’ का चलन। यानी अगर केमिस्ट किसी कंपनी की एक स्ट्रीप खरीदता है तो नियम के हिसाब से उससे एक स्ट्रीप का पैसा लिया जाता हैं लेकिन साथ ही में उसे एक स्ट्रीप पर एक स्ट्रीप फ्री, या 10 स्ट्रीप पांच स्ट्रीप फ्री दे दिया जाता है। बिलिंग 10 स्ट्रीप की ही होती है। इससे एक ओर सरकार को टैक्स नहीं मिल पाता वहीं दूसरी ओर कंपनियां केमिस्टों को मालामाल कर देती हैं। और उपभोक्ता एम.आर.पी. पर दवाई खरीदने के लिए अभिशप्त रहता है। इस खेल को कुछ दवाइयों के उदाहरण के साथ समझा जा सकता है।
      ‘मैन काइंड’ कंपनी द्वारा निर्मित ‘अनवांटेड किट’ भी स्त्रीरोग में इस्तेमाल में आती है। इसकी एम.आर.पी भी 499 रूपये प्रति किट है। रिटेलर को होलसेलर 384.20 रूपये में देता है। लेकिन सबसे दुःखद आश्चर्य यह है कि एक किट पर मैनकाइंड कंपनी 6 किट फ्री में देती हैं। बाजार की भाषा में इसे एक पर 6 क डिल कहा जाता है। इस तरह से रिटेलर को एक किट 54.80 रूपये का पड़ा। अगर इस मूल्य को एम.आर.पी से तुलना करके के देखा जाए तो एक कीट पर रिटेलर को 444 रूपये की बचत हो रही है यानी लगभग 907.27 %।
      इसी तरह सिपला कंपनी द्वारा निर्मित एम टी पी किट स्त्रीरोग में इस्तेमाल में आती है। इसकी एम.आर.पी 499 रूपये प्रति किट है। रिटेलर को होलसेलर 384.20 रूपये में देता है। लेकिन सबसे दुःखद आश्चर्य यह है कि इस एक किट को बेचने पर रिटेलर को कंपनी की ओर से पांच किट मुफ्त में दी जाती है, इस हिसाब से दुकानदार को यह दवा 64.03 रूपये का पड़ा। अगर इस मूल्य को एम.आर.पी से तुलना करके के देखा जाए तो एक कीट पर रिटेलर को 435 रूपये की बचत हो रही है यानी लगभग 780%। 

     एक प्रतिष्ठित कंपनी जिसका मार्केट में बहुत बढ़िया साख है, उसकी दवाइयों की गुणवत्ता को भी डाक्टर खूब तारीफ करते हैं। इस तरह से देश को लूटवा रही हैं तो देश को इस तरह की कंपनियों के खिलाफ क्या करना चाहिए!! इसी तरह मार्केट में दवाइयों पर प्रत्येक दवा कंपनी अपने हिसाब से बोनस देती है।

प्रतिभा जननी सेवा संस्थान ने की दवा दुकानदारों से हड़ताल पर न जाने की अपील

प्रेस विज्ञप्ति-15.10.12

प्रतिभा जननी सेवा संस्थान के नेशनल संयोजक आशुतोष कुमार सिंह ने महाराष्ट्र के दवा दुकानदारों से अपील की है कि वे जनहित में हड़ताल पर जाने की अपनी हठ को छोड़ दें। प्रशासन से बातचीत करें। लोगों को सुविधा देना आपका परम कर्तव्य है। अपने कर्तव्य-पथ से भटके नहीं।
उन्होंने प्रेस-विज्ञप्ति के माध्यम से बताया कि 'दवा दुकानदारों का तीन दिनों के लिए हड़ताल पर जाना दुःखद है। अगर एफ.डी.ए दवा दुकान पर फार्मासिस्ट को अनिवार्य रूप से रहने की बात कह रहा है तो इसमें गलत क्या है। इतने सालों से दवा दुकानदारों ने अपने मन की ही तो की है और अब सरकार पर दबाव बना है तो उसने अपने बीमार सिस्टम को दुरूस्त करने का काम शुरू किया है। जनहित में केमिस्टों को सरकार के इस पहल के साथ जाना चाहिए। अरे भाइयों आपका राष्ट्र स्वस्थ होगा तो आप भी स्वस्थ रहेंगे। आपलोग क्या चाहते हैं कि आपका पड़ोसी बीमार रहे। ऐसे में क्या आप चैन से सो सकते हो...नहीं न! तो आइए न... भटक क्यों रहे हैं! स्वस्थ भारत के निर्माण में अपना योगदान सुनिश्चित करें। आपलोगों पर भारत को स्वस्थ रखने की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है'। ज्ञात हो की प्रतिभा जननी सेवा संस्थान " स्वस्थ्य भारत विकसित भारत " अभियान चला रही है।

दवा दुकानदारों से सरकारी रेट लिस्ट मांगे

                                                 आम जनता से अपील


सरकारी नियम यह कहता हैं कि प्रत्येक दवा विक्रेता के पास सरकार द्वारा दी गयी सरकारी रेट लिस्ट होता है और उपभोक्ता दवा खरीदते समय उस रेट लिस्ट को केमिस्ट से मांग सकता है ताकि उसे मालूम चले की उसे जो दवाइयां दी गयी हैं उसका वास्तविक मूल्य क्या है? तो क्या आपने कभी सरकारी रेट लिस्ट दवा दुकानदार से मांगा है...अगर नहीं तो आज से ही मांगना शुरू कीजिए...अगर दुकानदार यह लिस्ट नहीं देता 

हैं तो इसके लिए आप नेशनल फार्मास्यूटिकल्स प्राइसिंग ऑथोरिटी में शिकायत कर सकते हैं। अथवा आप अपने जीला के ड्रग इस्पेक्टर, ड्रग कंट्रोलर से भी शिकायत कर सकते हैं। 1800111255 एन.पी.पी.ए का हेल्पलाइन नम्बर है जिसपर आप कॉल कर के इसके बारे में जानकारी मांग सकते हैं। ध्यान रहे कि सरकार ने 74 जरूरी दवाइयों की सेलिंग प्राइस तय कर रखी है। इस मूल्य से ज्यादा पर कोई भी दवा कंपनी अपनी दवा नहीं बेच सकती है। अगर कोई कंपनी इस नियम का उलंघन करती हैं तो उसके खिलाफ डीपीसिओ-1995 के में असेंशियल कोमोडिटिज एक्ट,1955 के सेक्सन सात के तहत डीपीसीओ के नियमों को तोड़ने हेतु कम से कम तीन महीने की सजा जो बढ़कर सात साल तक की हो सकती है और इतना ही नहीं इसका उलंघन करने वाले पर जुर्माना भी लगाया जा सकता है।


                                                                                                                 आशुतोष कुमार सिंह
                                                                                       नेशनल को-आर्डिनेटर, प्रतिभा जननी सेवा संस्थान, मुम्बई
                                                                                                        ईमेल-pratibhajanani@gmail.com

देश को लूट रही दवा कंपनियों पर क्रिमनल केस दर्ज करे सरकार

                                       सरकार से अपील


बियोंड हेडलाइन्स पर आज प्रकाशित खबर में बताया गया है कि देश की लगभग 700 दवा कंपनियों के खिलाफ एन.पी.पी.ए पिछले कई वर्षों से दवाइयों के मूल्य ज्यादा लिखने के लिए आर्थिक दंड लगाते आया है। ताजा आकड़ों के हिसाब से ओवरचारजिंग के 871 मामलों में दवा कंपनियों पर कुल 2574 करोड़ 95 लाख 84 हजार रूपये का जुर्माना लगाया गया है। जिसमें महज 234 करोड़ 72 लाख 61 हजार रूपये सरकार वसूल पायी है। सरकार के इस पहल से यह स्पष्ट हो गया है कि ये कंपनियां देश को लगातार 

आर्थिक नुकसान पहुंचा रही है, जिससे देश को आर्थिक नुकसान पहुंच रहा है व साथ ही मंहगी दवाइयों के 

कारण लाखों लोग मौत के गाल में समा रहे हैं। लगभग 3 प्रतिशत जनता गरीबी रेखा से ऊपर नहीं उठ पा रही है। उपरोक्त सभी बातों को एक साथ जोड़कर देखा जाए तो यह बहुत बड़ा अपराध है। इस अपराध के 

लिए मुनाफाखोर दवा कंपनियों के खिलाफ आपराधिक केस दर्ज कर उन्हें दंड देने की व्यवस्था सरकार 

करे। नहीं तो एक और जनआंदोलन के लिए तैयार हो जाए।

( आशुतोष कुमार सिंह, नेशनल को-आर्डिनेटर, प्रतिभा जननी सेवा संस्थान)
नोटः 5.10.2012 को जारी

दवाइयों की गुणवत्ता की जाँच नहीं के बराबर!

कंट्रोल एम.एम.आर.पी कैंपेन के तहत

• दवाइयों की गुणवत्ता संदेह के घेरे में
• आर.टी.आई से हुआ खुलासा

आशुतोष कुमार सिंह


दवाइयों के नाम पर किस तरह लूट मची है इसका एक और उदाहरण सामने आया है। इतनी महंगी दवाइयां खरीदने के बाद भी इस बात की कोई गारंटी नहीं हैं कि जो दवा आप खा रहे हैं वह गुणवत्ता के मानक को पूरी कर रही हो।
आर.टी.आई कार्यकर्ता अफरोज आलम साहिल ने जब नेशनल फार्मास्यूटिकल्स प्राइसिंग ऑथरिटी (एन.पी.पी.ए) से सूचना के अधिकार तहत यह जानकारी मांगी कि पूरे देश में किस जिला, राज्य में दवाइयों को रैंडम सैंपलिंग के लिए सबसे ज्यादा भेजा गया है? इस सवाल के जवाब में एन.पी.पी.ए का उत्तर चौकाने वाला है। अंग्रेजी में दिए अपने जवाब में एन.पी.पी.ए लिखता हैं ‘Most of the random sampling has been done from Delhi/ New Delhi during the current year.’ यानी इस साल रैंडम सैम्पलिंग के ज्यादातर कार्य दिल्ली और एन.सी.आर में ही कराए गए हैं। इस जवाब से कई सवाल उठते हैं। क्या पूरे देश में जो दवाइयां बेची जा रही हैं उनकी जाँच की जरूरत नहीं हैं? क्या केवल दिल्ली और एन.सी.आर के लोगों को ही गुणवत्ता परक दवाइयों की जरूरत है? 
इस तरह की लापरवाही से यह साफ-साफ दिख रहा हैं कि देश की जनता के स्वास्थ्य को लेकर सरकारी व्यवस्था पूरी तरह से अव्यवस्थित है।
ऐसे में यह अहम सवाल उठता हैं कि देश के स्वास्थ्य के साथ कब तक इस तरह से लुकाछिपी का खेल चलता रहेगा! महंगी दवाइयों से त्रस्त जनता को गुणवत्तापरक दवाइयां भी न मिले तो आखिर वो करे तो क्या करे!

एन.पी.पी.ए दवाइयों के मूल्य कैसे निर्धारित करेगी?

कंट्रोल एम.एम.आर.पी कैंपेन के तहत


• एन.पी.पी.ए को नहीं मालूम हैं देश में कितनी दवा कंपनियां!
• आर.टी.आई से मिली जानकारी


आशुतोष कुमार सिंह

सरकार ने 348 दवाइयों को राष्ट्रीय जरूरी दवा सूची में डालने का मन बना रही है। राष्ट्रीय दवा नीति-2011 
को ग्रुप्स ऑफ मिनिस्टर्स ने स्वीकार कर लिया हैं और अपना अनुमोदन के साथ इसे कैबिनेट की मंजूरी के लिए इसी हफ्ते भेजने वाली है। सरकार के कथनानुसार अब ये दवाइयाँ सस्ती हो जायेंगी। इन दवाइयों के मूल्य निर्धारण की जिम्मेदारी राष्ट्रीय औषध मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एन.पी.पी.ए) की है। एन.पी.पी.ए ने एक आर.टी.ई के जवाब में कहा है कि उसे यह नहीं मालूम की देश में कितनी दवा कंपनियां है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि दवाइयों के मूल्य को निर्धारित करने की जिम्मेदारी जिस सरकारी प्राधिकरण की है, उसे ही नहीं मालूम हैं कि देश में कितनी दवा कंपनियां हैं तो ऐसे वह किस आधार पर दवाइयों के मूल्यों का निर्धारण करेगी? साथ ही वह दवा कंपनियों की मनमानी को कैसे रोकेगी? गौरतलब है कि जाने-माने आर.टी.ई कार्यकर्ता अफरोज आलम साहिल ने आर.टी.ई डालकर एन.पी.पी.ए से पूछा था कि देश में कितनी दवा कंपनियां है जिसके जवाब में एन.पी.पी.ए ने कहा था कि उसके पास देश की तमाम दवा कंपनियों का लिस्ट नहीं हैं और उसे यह भी नहीं मालूम हैं कितनी दवा कंपनियां है। 

( लेखक कंट्रोल एम.एम.आर.पी कैंपेन चला रही प्रतिभा जननी सेवा संस्थान के नेशनल को-आर्डिनेटर व युवा पत्रकार हैं )

सच में गरीबों को सस्सी दवाइयां मिल पायेंगी!!




आशुतोष कुमार सिंह




महंगाई की मार से त्रस्त जनता के लिए एक सुकुन भरी खबर आई है कि उन्हें जरूरी दवाइयाँ सस्ती   मिलेंगी। शरद पवार की अध्यक्षता में बनी मंत्रियों के समूह ने राष्ट्रीय दवा नीति-2011 को मंजूरी देते हुए कैबीनेट के पास भेज दिया है। इस फैसले से अब देश में 348 दवाइयाँ मूल्य नियंत्रण के दायरे में आ जायेंगी। अभी तक 74 दवाइयों को ही मूल्य नियंत्रण के दायरे में रखा गया था।
ऊपरी तौर पर सरकार का यह फैसला स्वागत योग्य लगता हैं। लेकिन जब इसकी बारीकियों को समझने का प्रयास किया जायेगा तो ऐसा लगेगा कि यह तो ऊंट के मुंह में जीरा के समान है।
              जाहिर है पिछले तीन-चार महीनों से मीडिया में लगातार यह खबर आ रही हैं कि दवा कंपनियाँ 10 की दवा 100 रूपये में बेच रही हैं। दवाइयों के मूल्य लागत मूल्य से कई गुणा बढ़ा कर तय की जा रही है। खबरों में यह भी बताया जा रहा है कि पहले से मूल्य नियंत्रण के दायरे में जो दवाइयां हैं वे भी सरकारी नियम की अवहेलना करते हुए ज्यादा मूल्य पर बेची जा रही हैं। ऐसे में यह सवाल उठता हैं कि क्या कुछ दवाइयों को मूल्य नियंत्रण की श्रेणी में ला देने भर से गरीबों का भला हो जायेगा। गौरतलब है कि हेल्थ पर कुल खर्च का 72 प्रतिशत खर्च केवल दवाइयों पर होता हैं। एक सरकारी शोध में यह भी कहा गया हैं कि प्रत्येक साल देश के तीन प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे केवल महंगी दवाइयों के कारण रह जाते हैं। गरीबी मिटाने का दावा करने वाली सरकार देश में बेची जा रही लगभग 40000 दवाइयों में से 348 को मूल्य नियंत्रण की श्रेणी में लाकर कितना बड़ा कार्य करने जा रही हैं अपने आप में बहुत बड़ा सवाल है।
         पिछले दिनों आर टी आई कार्यकर्ता अफरोज आलम साहिल ने राष्ट्रीय औषध मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एन.पी.पी.ए ) से सूचना के अधिकार के तहत दवाइयों से संबंधित कुछ जानकारियाँ मांगी थी। एन.पी.पी.ए ने जो जानकारी उपलब्ध कराई है वह चौकाने वाली है। मसलन एन.पी.पी.ए को नहीं मालूम हैं कि देश में कितनी दवा कंपनियां हैं। जाँच के लिए दवाइयों की सैप्लिंग केवल दिल्ली और एन.सी.आर से ही उठाए गए हैं। 
           ऐसे में कई सवाल उठते हैं कि जब मूल्य निर्धारण करने वाली सरकारी प्राधीकरण को यह नहीं मालूम हैं कि देश में कितनी दवा कंपनियां हैं तो वह किस आधार पर दवा कंपनियों द्वारा बेची जा रही दवाइयों के मूल्यों पर नज़र रख पायेगी! अगर केवल दिल्ली और एन.सी.आर में ही जाँच के लिए दवाइयों के सैम्पल लिए गए हैं तो बाकी देश में बेची जा रही दवाइयों की गुणवत्ता की जाँच कैसे होगी? इस तरह के तमाम सवाल हैं जिनका उत्तर दिए बगैर सरकार द्वारा 348 जरूरी दवाइयों को मूल्य नियंत्रण के अधिन करने का फैसला कारगर नहीं हो सकता।
          पिछले तीन-चार महीने से नई मीडिया (सोसल मीडिया) के माध्यम से गैर सरकारी संस्था ‘प्रतिभा-जननी सेवा संस्थान’ दवाइयों के नाम पर हो रही लूट को लेकर ‘कंट्रोल मेडिसन मैक्सिमम रिटेल प्राइस’ (कंट्रोल एम.एम.आर.पी) कैंपेन चला रही है। पिछले 14 सालों से लटके हुए राष्ट्रीय दवा नीति को ग्रुप्स ऑफ मिनिस्टर्स द्वारा अनुमोदित करने को लेकर एक दबाव इस कैंपेन के कारण भी बना हैं। इस कैंपेन ने आम लोगों को दवाइयों में हो रही धांधली के प्रति सचेत किया है। इसी बीच महंगी दवाइयों के मूल्य को नियंत्रित करने को लेकर लखनऊ की सामाजिक कार्यकर्ता नूतन ठाकुर ने लखनऊ हाइकोर्ट में में एक जनहित याचिका भी दायर किया हैं। जिस पर आगामी 3 अक्टूबर को सुनवाई होने की संभवाना है।
           भारत एक लोक-कल्याणकारी राज्य है । जहाँ जनता कि स्वास्थ्य की जिम्मेवारी सरकार की है। और अपने इस जिम्मेवारी को सरकार निभाती हुई नज़र भी आ रही है। आधिकारिक तौर पर भारत में गरीबी दर 29.8 फीसदी है या कहें 2010 के जनसांख्यिकी आंकड़ों के हिसाब से यहां 350 मिलियन लोग गरीब हैं। वास्तविक गरीबों की संख्या इससे से भी ज्यादा है। ऐसी आर्थिक परिस्थिति वाले देश में दवा कारोबार की कलाबाजारी अपने चरम पर है। मुनाफा कमाने की होड़ लगी हुयी है। धरातल पर स्वास्थ्य सेवाओं की चर्चा होती है तो मालुम चलता है कि हेल्थ के नाम पर सरकारी अदूरदर्शिता के कारण आम जनता लूट रही है और दवा कंपनियाँ, डाँक्टर और दवा दुकानदारों का त्रयी मालामाल हो रहे हैं।

असरदार हुआ ‘कंट्रोल एम.एम.आर.पी’ अभियान




प्रेस विज्ञप्ति

348 जरूरी दवाइयां हुयीं सस्ती!

दवा कंपनियों द्वारा आम लोगों को लगातार लूटे जाने की खबर के बीच में एक थोड़ी सी राहत भरी खबर आई है।
स्वयंसेवी संस्था प्रतिभा-जननी सेवा संस्थान द्वारा चलाए जा रहे नेशनल कैंपेन कंट्रोल मेडिसिन मैक्सिमम रिटेल प्राइस ‘कंट्रोल एम.एम.आर.पी’ के दबाव में आखिरकार राष्ट्रीय दवा नीति-2011 को ग्रुप्स ऑफ मिनिस्टर्स ने अपनी मंजूरी दे दी है। शरद पवार की अध्यक्षता में ग्रुप्स ऑफ मिनिस्टर्स ने अपने अनुमोदन के साथ इस ड्राफ्ट को कैबिनेट के पास भेजा दिया है। सरकार के इस फैसले 348 जरूरी दवाइयों के दाम कंट्रोल किए जा सकेंगे। गौरतलब है कि इसके पूर्व महज 74 दवाइयों का ही मूल्य नियंत्रित किया गया था। कंट्रोल एम.एम.आर.पी अभियान चलाने वाली गैर सरकारी संस्था प्रतिभा जननी सेवा संस्थान के नेशनल को-आर्डिनेटर आशुतोष कुमार सिंह ने सरकार के इस फैसले का स्वागत किया है और कहा है कि यह फैसला सराहनीय है लेकिन अभी भी ऊंट के मुंह में जीरा के समान ही है।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य का बुरा हाल/ Control M.M.R.P कैंपेन के तहत


सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को ठेंगा दिखा रही है सरकार!

• नेशनल फार्मास्यूटिकल्स प्राइसिंग पॉलिसी-2011 भी ठंढे बस्ते में
• दवा कंपनियों की लूट जारी लगातार जारी है
आशुतोष कुमार सिंह
भारत की जनता को सुप्रीम कोर्ट से बहुत ही उम्मीद होती है बावजूद इसके भारत सरकार सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का खुलेआम उलंघन कर रही है। नेशनल फार्मास्यूटिकल्स प्राइसिंग पॉलिसी-2002 में खामी होने के कारण सुप्रीम कोर्ट ने इसे स्थगति कर दिया था और जल्द ही जनहित में एक नयी फार्मा नीति बनाने का निर्देश दिया था। 10 मार्च 2002 को दिए अपने आदेश में कोर्ट ने कहा था कि जीवन रक्षक दवाइयों की रिवाज्ड प्राइस नए सिरे से 2 मई 2003 तक पूरे किए जाए और कोर्ट को इसकी जानकारी दी जाए। 2003 की बात कौन कहे आज 2012 जाने को है लेकिन सरकारी स्तर पर इस मसले पर केवल कभी-कभार विचार-विमर्श होते रहे हैं और राष्ट्रीय दवा मूल्य नीति अभी तक लागू नहीं हो पाया है। नेशनल फार्मास्यूटिकल्स पॉलिसी-2011 का ड्राफ्ट पिछले साल अक्टूबर में ही तैयार हो गया था लेकिन जनसुझाव के नाम पर इसे भी लटका कर रखा गया है। और तब से लेकर अब तक दवा कंपनियों की मनमानी बदस्तुर जारी है। आम जनता लूटी जा रही है और हमारी सरकार चैन की नींद सो रही है।

(लेखक प्रतिभा जननी सेवा संस्थान के नेशनल को-आर्डिनेटर व युवा पत्रकार हैं)
नोटः 23 सितम्बर, 2012 को लिखा 



मंगलवार, 11 सितंबर 2012

एन.प.पी.ए को नही पता देश में कितनी दवा कंपनियां है...



कंट्रोल एम.एम.आर.पी अभियान के तहत...

आर.टी.आई से हुआ खुलासा...


Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines


देश में दवाओं की बेतहाशा कीमतों के खिलाफ़ उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की गई है, जिसकी सुनवाई 10 सितंबर को होनी है. वहीं मुम्बई की ‘प्रतिभा जननी सेवा संस्थान’ भी कंट्रोल एमआरपी की एक मुहिम पूरे देश में पिछले 3 महीने से चला रही है. फिल्म अभिनेता आमिर खान के शो ‘सत्यमेव जयते’ में भी महंगी चिकित्सीय सेवाओं का मुद्दा उठाया गया था. आमिर खान ने जेनेरिक दवाओं के मुद्दे को भी उठाया था.
इसी बीच BeyondHeadlines ने देश में दवाओं की कीमतें निर्धारित करने के लिए बनाई गई नेशनल फार्मा प्राइसिंग अथॉरिटी (एनपीपीए)  को सूचना के अधिकार के तहत आवेदन देकर कुछ बुनियादी जानकारियां जुटाने की कोशिश की. एनपीपीए ने सभी सवालों के पूरे जवाब तो नहीं दिए, लेकिन जो आधे-अधूरे जवाब दिए उनसे भारत में बेवक्त मर रहे लाखों लोगों की मौत का कारण ज़रूर पता चलता है.
आपको यह जानकर हैरानी होगी कि देश में दवाओं की कीमतें निर्धारित करने के लिए बनाए गए इस प्राधिकरण के पास देश की तमाम दवा निर्माता कंपनियों की सूची तक नहीं है.
यही नहीं एनपीपीए को यह भी नहीं पता है कि भारत में कितनी दवा कंपनियां जेनेरिक दवाएं बनाती हैं. यानि भारत में दवा की कीमतें निर्धारित करने की जिम्मेदारी जिस प्राधिकरण को दी गई है उसे यह तक पता नहीं है कि देश में कितनी कंपनियां दवाइयां बनाती हैं.
साथ ही देश के विभिन्न ड्रग इंस्पेक्टरों से मिलने वाली शिकायतों की भी सूची एनपीपीए नहीं बनाती है. यही नहीं, अभी तक किसी भी फार्मा कंपनी को ब्लैकलिस्ट भी नहीं किया है.

BeyondHeadlines के सवालों पर एनपीपीए ने क्या जवाब दिए आप खुद ही नज़र डाल लीजिए. 

1. देश में कितनी दवा कंपनियां है? उनके नामों की सूची उपलब्ध कराएं.

Reply: There is no list of the names of Drugs/Pharmaceutical companies available with NPPA. However, pharma directory placed on website i.e. www.nppaindia.nic.inin this regard may be visited.

2. देश की कितनी दवा कंपनियां जेनरिक दवा बनाती हैं? कम्पनियों के नामों की सूची उपलब्ध कराएं.

Reply: There is no list of companies manufacturing generic drugs is available.

3. दवा कंपनियां अपनी दवाई का कॉस्ट ऑफ प्रोडक्सन कैसे तय करती हैं? इस संबंध में समस्त जानकारियां उपलब्ध कराएं.

Reply: In respect of scheduled formation under price control, the prices are fixed by NPPA as per the formula given in paragraph 7 of the DPCO’1995. In respect of medicines not covered under price control under the DPCO’1995 i.e. non scheduled formulations, manufactures fix the prices by themselves without seeking the approval of the Govt. /NPPA. Under the present framework of pricing, there is no control on the launch price of non-scheduled medicines.

4. किसी दवा का एम.आर.पी. कैसे निर्धारित होती है? इस संबंध में समस्त नियमावली का सूचियां उपलब्ध कराएं.

Reply: The MRP of a schedule drug formulation is fixed after adding the statutory duties like excise duty, VAT / taxes etc., as applicable, to the price determined as per paragraph 7 of the DPCO’1995.

5. कोई कंपनी अपने कॉस्ट ऑफ प्रोडक्शन से कितना प्रतिशत ज्यादा एम.आर.पी. रख सकती है? इस संबंध में सरकार द्वारा जारी गाईडलाइन्स की कॉपी उपलब्ध कराएं.

6. जेनरिक दवा का एम.आर.पी. उसके लागत मूल्य से अधिकतम कितना प्रतिशत ज्यादा रखा जा सकता है? इस संबंध में सरकार द्वारा जारी गाईडलाइन्स की कॉपी उपलब्ध कराएं.

Reply: In the case of indigenously manufactured scheduled formulation, the Maximum Allowable Post-manufacturing Expenses (MAPE) to cover all costs incurred by a manufacturer from the stage of ex-factory cost to retailing and includes trade margin and margin for the manufacturer shall not exceed 100% as per paragraph 7 of DPCO’1995. In the case of an imported scheduled formulation, such margin to cover selling and distribution expenses including interest and importer’s profit shall not exceed 50% over the landed cost of the formulation under the said paragraph.
DPCO’1995 does not specify the percentage of margin over the cost of production of the company in respect of non-scheduled formulation which is not under price control.
The above information given for scheduled and non-scheduled formulations is also applicable for generic medicines as there is no separate provision for generic medicines under DPCO’1995.

7.दवाइयों का मूल्य कंट्रोल करने की दिशा में शुरू से लेकर अब तक क्या-क्या कार्य किए गए हैं? अब तक इस संबंध पिछले दस सालों में जितने भी पत्राचार किए गए, सभी पत्रों की फोटोकॉपी उपलब्ध कराएं.

Reply: The prices of scheduled Bulk Drugs and scheduled formulations are controlled by NPPA under DPCO’1995. No one can sell any scheduled drugs/ formulations at a price higher than the price fixed by the NPPA / Government. NPPA initiates actions for overcharging based on the report from State Drug Controllers (SDC), complaints from individuals, verification of price list submitted by companies and suo-moto purchase of samples from market. In case, a company is found is found selling the drugs/ formulations at a price higher than the prices fixed by NPPA/ Government, NPPA initiates action by issuing Preliminary Notices to the Pharma companies seeking requisite information/details from them to examine the matter further under para 13 of the DPCO’1995 read with Essential Commodities Act-1995. In confirmed cases of overcharging, demand notices are issued to the defaulting Pharma companies for depositing the overcharged amount with the Government.
The prices of non scheduled formulations are not fixed by NPPA. As a part of the exercise for monitoring of prices for non-scheduled formulations exceeding 10% per annum. In case a company increase the prices of non-scheduled formulations beyond 10%, the specific cases are taken up by NPPA with the respective companies for rolling back the increase within the limit of 10%. In case, a company does not comply with the instructions as above, NPPA initiates the process for capping the increase in the prices upto a ceiling of 10% by fixing the price of respective formulation pack/medicine.
Notifications/ price fixation order for scheduled and non-scheduled formulations issued by the NPPA from time to time and other relevant information are available on the website of NPPA i.e. www.nppaindia.nic.in. On the part of monitoring exercise, NPPA has fixed prices of 30 non-scheduled formulation packs under Para 10(b) and in the case of 65 formulation packs, the companies have voluntarily reduced the prices of formulation packs as a result of intervention of the NPPA.

8. जेनरिक स्टोर खोलने की दिशा में सरकार की नीति क्या है? समस्त जानकारी उपलब्ध कराएं.

Reply: information with regard to opening of Generic store is not available with NPPA. It is however stated that the Jan Aushadhi Stores are opened under Jan Aushadhi Campaign of the Department of Pharmaceuticals.

9. एन.पी.पी.ए के पास दवा कंपनियों के खिलाफ कितने मामले लंबित है. सारे लंबित मामलों की जानकारी सूची सहित उपलब्ध कराएं.

10. लंबित माललों को निपटारे के लिए एन.पी.पी.ए ने क्या क़दम उठाये हैं. समस्त जानकारी उपलब्ध कराएं.

11. अभी तक कितनी कंपनियों पर ओवरचार्जिंग के केस हैं. और वे कौन-कौन हैं? कम्पनियों के नामों की सूची उपलब्ध कराएं.

Reply: Action for recovery of the overcharged amount along with interest thereon is a continuous process for which action is taken by NPPA as per the provision of DPCO’1995 read with Essential Commodities Act, 1995. In case the amount is not deposited by the companies, the case is referred to the collector of recovery of the demanded amount from them as arrears of land revenues under the provisions of DPCO, 1995 read with Essential Commodities Act, 1995. The recovery of the overcharged amount is affected due to various Court cases in High Courts and Supreme Court.
The details of companies penalized for overcharging alongwith interest thereon vis-à-vis amount realized form them since inception of NPPA and till 31.07.2012 are available on the website of NPPA at www.nppaindia.nic.in.

12. पूरे देश में किस जिला, राज्य में दवाइयों की रैंडम सैंपलिंग के लिए सबसे ज्यादा भेजा गया है? समस्त जानकारी उपलब्ध कराएं.

Reply: Most of the random sampling has been done from Delhi/ New Delhi during the current year.

13. किस ड्रग इंस्टपेक्टर ने अब तक सबसे ज्यादा दवाइयों को जाँच के लिए भेजा है. देश के सभी ड्रग इंस्कपेक्टरों द्वारा जांच के लिए भेजी गई दवाइयों के कितने मामले हैं? समस्त जानकारी उपलब्ध कराएं.

Reply: NPPA has been receiving the complaints along with the details of products, samples etc from different State Drug Controllers (not from the Drug Inspector). Maximum number of complaints/ samples for examination is receiving from Gujarat and Kerela Drug Controller.

14.क्या कोई दवा कंपनी बिना एन.पी.पी.ए को सूचित किए दवाइयां बना सकती हैं और उनके मूल्य निर्धारित कर सकती हैं? अगर हां, तो ऐसी कई कम्पनियां इस देश में हैं. और अगर नहीं, तो आपके विभाग ऐसे कम्पनियों का मामला उजागर किया जो नकली दवा बना रहे हैं. समस्त जानकारी उपलब्ध कराएं.

15. नकली दवा बनाने वाली कम्पनियों के कितने मामले आपके विभाग में आए हैं. नकली दवा बनाने वाली समस्त कम्पनियों के नामों की सूची उपलब्ध कराएं.

Reply: The pharmaceuticals company manufacturing medicines shall have to follow the DPCO’1995 in the matter of fixing price for the scheduled medicines manufactured by them. In case of non-scheduled formulations, manufacturers fix the prices by themselves without seeking the approval of the Govt./NPPA. Under the present framework of pricing, there is no control on the launch price of non-scheduled medicines. NPPA has not received/ examined the case of fake drugs and there is no such list of companies available with NPPA.

राष्ट्रीय औषध मूल्य नियंत्रण प्राधीकरण ( एन.पी.पी.ए ) के नाम खुला पत्र



आम लोगों को गुमराह न करें एन.पी.पी.ए!!!


पूरा देश जानता है कि दवाइयों के मूल्य किस तरह से दवा कंपनियां मनमाने तरीके से निर्धारित कर रही है। इन मूल्यों को मोनिटर करने की जिम्मेदारी राष्ट्रीय औषध मूल्य नियंत्रण प्राधीकरण की है। एन.पी.पी.ए के जो कार्य गिनाए गए हैं उनमें सबसे पहले ही यह कहा गया है कि डीपीसीओ के नियमों को लागु करवाना उसकी जिम्मेदारी है। 
आज दिनांक 6.09.2012 को नवभारत टाइम्स, मुम्बई के पृष्ठ संख्या 10 पर छपी एक खबर में एन.पी.पीए चेयरमैन सी.पी.सिहं के हवाले से बताया गया है कि, कुछ लोगों को लगता है कि कुछ कंपनियां लागत से काफी ज्यादा कीमत डिक्लेयर करके भारत में दवाएं लांच कर रही हैं। वे लैंड प्राइस कैसे तय करती हैं इसके बारे में हमें कुछ पता नहीं चलता।
हमें खेद हैं कि एन.पी.पी.ए के चेयरमैन आम लोगों को भरमाने का प्रयास कर रहे हैं। पिछले ढाई महीने से चलाए जा रहे कंट्रोल एम.एम.आर.पी अभियान के तहत ऐसे कई सबूत पेश किए जा चुके हैं जो यह सिद्ध करता हैं कि भारतीय कंपनियां भी डी.पी.सी.ओ. के नियमों का पालन नहीं कर रही हैं और अपने हिसाब से मूल्य तय कर रही हैं। जिससे आम लोगों को भारी आर्थिक नुक्सान हो रहा है।
एन.पी.पी.ए. के चेयरमैन श्री सी.पी.सिंह साहब को क्या अभी तक इस बात की जानकारी नहीं मिल पायी है कि किस तरह से भारतीय कंपनियां भी ज्यादा मूल्य तय करके सरकार व आम जनता को अरबों का चूना लगा रही है। अगर नहीं मालूम है तो शर्म की बात है और अगर मालूम है उसके बाद भी इस तरह का बयान दे रहे हैं तो और भी शर्म की बात है।
अंत में मैं एन.पी.पी.ए से अनुरोध करना चाहता हूं कि वह देश की जनता के हितों को ध्यान में रखकर अपनी ढुलमुल नीति से ऊपर उठे और सरकार द्वारा प्रदत अपनी शक्ति को पहचाने व उसका सही सदुपयोग करें। 

आपका अपना
आशुतोष कुमार सिंह
नेशनल को-आर्डिनेटर, प्रतिभा जननी सेवा संस्थान

प्रत्येक साल 3,6000000 लोगों को गरीब बना रही है बीमार स्वास्थ्य सुविधाएं...

कंट्रोल एम.एम.आर.पी अभियान के तहत...

आशुतोष कुमार सिंह

भारत एक लोक कल्याणकारी राज्य है। जहाँ के सभी नागरिकों को स्वतंत्रता पूर्वक जीने का अधिकार मिला हुआ है। लेकिन धीरे-धीरे ऐसे हालात बनते जा रहे हैं जिसके कारण जनसमूह का प्रतीक भारत राष्ट्र भी बीमार होता जा रहा है। 
आजादी के बाद से अभी तक के आंकड़े बताते हैं कि भारत अपने स्वास्थ्य नीति को लेकर कभी भी गंभीर नहीं रहा है। ध्यान देने वाली बात यह है कि भारत अपने सकल घरेलु उत्पाद का लगभग 1 प्रतिशत राशि ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करता है। भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश में स्वास्थ्य सेवाओं पर इतना कम खर्च राष्ट्र को स्वस्थ रखने के लिए किसी भी रूप में पर्याप्त नहीं कहा जा सकता है। 
हाल ही में रिसर्च एजेंसी अर्नेस्ट एंड यंग व भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग महासंघ (फिक्की) की ओर से जारी एक रिपोर्ट पर ध्यान दिया जा सकता है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत सरकार को यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज (यूचसी) प्रोग्राम यानि सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभाल लक्ष्य के क्रियान्वयन के लिए अपनी सकल घरेलु उत्पाद यानी जीडीपी का लगभग 4 फीसदी हिस्सा बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करना होगा। इस रिपोर्ट में स्वास्थय से संबंधित जो मुख्य बातें बतायी गयी है उसके मुताबिक लगभग 80 फीसदी शहरी परिवार और 90 फीसदी ग्रामीण परिवार वित्तीय परेशानियों के कारण अपने वार्षिक घरेलू खर्च का आधा हिस्सा भी ठीक से स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च नहीं कर पाते। सन् 2008 किए गए अध्ययन के आधार पर जारी इस रिपोर्ट में जो सबसे चौकाने वाला तथ्य यह है कि स्वास्थ्य सेवाओं से संबंधित खर्च के कारण भारत की आबादी का लगभग 3 फीसदी हिस्सा हर साल गरीबी रेखा के नीचे फिसल जाता है। यानी एक ओर जहाँ सरकार गरीबी खत्म करने की बात कर रही है वही स्वास्थ्य सेवाओं पर ध्यान नहीं देने के कारण देश में गरीबी लगातार बढ़ रही है। यहाँ पर यह भी ध्यान देने वाली बात है कि स्वास्थ्य सेवाओं पर कुल खर्च का 72 प्रतिशत केवल दवाइयों पर खर्च होता है। यह बात हम भी कई सालों से कहते आ रहे हैं लेकिन कोई सुनने को तैयार नहीं था। इसी कड़ी में नयी मीडिया के माध्यम से ‘कंट्रोल एम.एम.आर.पी.’ कैंपेन पिछले 22 जून 2012 से चलाया जा रहा है। जिसके तहत दवाओं पर गलाकाट मैक्सिम रिटेल प्राइस को कंट्रोल करने की वकालत इस कैंपेन को चलाने वाली संस्था प्रतिभा जननी सेवा संस्थान कर रही है।
रिसर्च एजेंसी अर्नेस्ट एंड यंग व फिक्की के संयुक्त तत्वाधान में जारी इस रिपोर्ट में सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभाल लक्ष्य के बेहतर क्रियान्वयन के लिए एक रूपरेखा बनाने की आवश्यकता पर सरकार का ध्यान आकृष्ट किया गया है। जिसके तहत सरकार अपने सभी नागरिकों को सस्ती कीमत पर दवाईयां और स्वास्थ्य सुविधाएं अनिवार्य रूप से उपलब्ध करवायेगी। रिपोर्ट में यह अनुमान लगाया गया है कि अगर जीडीपी का 4 फीसदी हिस्सा स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च किया जाए, तो अगले 10 सालों में सबके लिए सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभाल लक्ष्य को हासिल किया जा सकेगा।
इस संदर्भ में विश्व स्वास्थ्य सभा ने 2005 में अपने सभी सदस्य देशों से आग्रह किया था कि अपने आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संदर्भ के आधार पर सभी देश इस तरह के कार्यक्रम की दिशा में काम करें। बावजूद इसके भारत इस दिशा में कोई बेहतर योजना को क्रियान्वित करने में सफल नहीं हो पाया है।
यदि हमारी सरकार अपने से ज्यादा जनसंख्या वाले देश चीन की स्वास्थ्य नीति से कुछ सीख ले तो शायद हम भारतीयों का स्वास्थ्य भी तंदरूस्त हो सकता है। गौरतलब है कि चीन एकमात्र ऐसा देश है जो अपनी विशाल जनसंख्या के कारण इसी तरह की स्वास्थ्य समस्याओं का समाना कर रहा है, लेकिन इसके बावजूद भी पिछले दो वर्षों में वह 84 फीसदी जनसंख्या को बेहतर सुविधाएं मुहैया कराने में सफल रहा है और फिलहाल जीडीपी का 5 फीसदी हिस्सा स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च भी कर रहा है।
अब समय आ गया है कि स्वास्थ्य सेवाओं को स्वस्थ करने के लिए सरकार दवा कंपनियों द्वारा अपने मनमर्जी से तय की जा रही एप.आर.पी को कंट्रोल करें। सरकारी केमिस्ट की बहाली करें। जीवन-रक्षक दवाइयों को मुफ्त वितरण की व्यवस्था करें। अगर सरकार अभी नहीं चेती तो आने वाले समय में राष्ट्र का स्वास्थ्य और खराब होने की आशंका है, ऐसे में भारत को विकसित राष्ट्र के रूप में देखने का सपना, सपना ही बन कर रह जायेगा।
(लेखक प्रतिभा जननी सेवा संस्थान के राष्ट्रीय को-आर्डिनेटर व युवा पत्रकार हैं)

“सबको स्वास्थ्य” का नारा कब होगा हमारा!!

कंट्रोल एम.एम.आर.पी अभियान के तहत

 किशोर कुमार 

सरकार ने स्वीटजरलैंड की एक कंपनी को कैंसर की दवा को भारत में पेटेंट करने से मना कर दिया। यह प्रशंसनीय कदम है। लेकिन वह पूरे देश में जब तक जेनरिक दवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित नहीं करेगी, तब तक “सबको स्वास्थ्य” संबंधी भारत सरकार की संकल्पना महज नारा बनकर ही रह जाएगी और मात्र 20 रूपए प्रतिदिन अर्जित करने वाली देश की अस्सी फीसदी जनता दवा के अभाव में काल-कलवित होती रहेगी। यह एक कड़वा सच है कि टीबी से प्रतिवर्ष देश में तीन लाख लोगों की मृत्यु हो जाती है और ज्यादातर मौतें गरीबों की होती है, जो इस बीमारी का महंगा इलाज नहीं करा पाते हैं। 
सरकारी उदासीनता कहें या सोची-समझी रणनीति का नतीजा, भारत में आम आदमी सस्ती जेनरिक दवाओं की पहुंच से दूर ही रहता है। बावजूद इसके विदेशी दवा कंपनियां अपनी दवाओं के पेंटेट को लेकर बहुत ज्यादा संवेदनशील हैं। दरअसल बहुराष्ट्रीय कंपनियों को यह चिंता हमेशा सताती रहती है कि भारत की जनता ने भविष्य में कभी भी जेनरिक दवाएं उपलब्ध कराने के पक्ष में माहौल बनाया तो उनका मुनाफा कई गुणा कम हो सकता है। 
इसलिए बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों की दवाओं को भारत में पेटेंट करने की अनुमति देने में बड़ी सावधानी बरतने की जरूरत है। साथ ही यह सुनिश्चित कराना भी जरूरी है कि जेनरिक दवाओं और बहुराष्ट्रीय अथवा देश की दवा कंपनियों की दवाओं और समान साल्ट वाले जेनरिक दवाओं की कीमतों में ज्यादा अंतर नहीं रहने पाए। 
यह खुशी की बात है कि स्वीटजरलैंड की कंपनी नोवार्टिस की कैंसर के उपचार के लिए बनाई गई नई दवा “ग्लिवेक” को भारत के पेटेंट विभाग ने देश में पेटेंट करने की अनुमति देने से इन्कार कर दिया है। विभाग का कहना है कि यह नई दवा नहीं बल्कि पहले से बाजार में बिक रही एक दवा का नया संस्करण भर है।
अब भारत सरकार यदि जेनरिक दवाओं को आम जन तक पहुंचाने ईमानदार पहल कर दे तो देश की जनता का बड़ा भला होगा। भारत सरकार के रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय के औषधि निर्माण विभाग ने नवंबर 2008 में सस्ती जेनरिक दवाओं की बिक्री के लिए दो वर्षों के भीतर 250 जन औषधालय खोलने का फैसला किया था। लेकिन सरकार की इस घोषणा से “नौ दिन चले ढ़ाई कोस” वाली कहावत चरितार्थ हुई। 
उपलब्ध सरकारी आंकड़ों के मुताबिक सवा तीन साल में यानी इस साल फरवरी तक मात्र 117 जन औषधालय ही खोले जा सके हैं। लेकिन प्रचार-प्रसार की कमी के कारण इतने औषधालय भी अभी जनता से दूर ही हैं। यह समय का तकाजा है कि सरकार या तो खुद या फ्रेंचाइजी देकर बड़ी संख्या में जन औषधायल खोले और उसका व्यापक प्रचार-प्रसार हो। साथ ही यह सुनिश्चित किया जाए कि चिकित्सक दवाओं के ब्रांड नेम की जगह साल्ट के नाम लिखें। 
जन औषधालय भारत जैसे गरीब देश के लिए कितना जरूरी है, इसका अंदाजा कुछ जेनरिक दवाएं और ब्रांडेड दवाओं की कीमतों में अंतर को देखकर भी समझा जा सकता है। मिसाल के तौर पर ब्रांडेड पैरासिटामॉल का दस टैबलेट वाला स्ट्रीप 5 से 9 रुपये में बिकता है तो उसी साल्ट की जेनरिक दवा 2.12 पैसे में उपलब्ध है। इसी तरह ब्रांडेड रॉक्सीथ्रोमाइसिन एंटीबायटिक 120-700 रुपये में बाजार में उपलब्ध है तो इसकी जेनरिक दवा मात्र 18.91 रूपए में। 
अब यह देखना है कि सरकार अपने “सबको स्वास्थ्य” संबंधी नारे को किस तरह फलीभूत करती है। जनता और उसके प्रतिनिधियों को इस मामले में बेहद सतर्क रहने की जरूरत है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

सरकारी केमिस्ट क्यों नहीं हैं?


आशुतोष कुमार सिंह

स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन निवास करता है। यह बात हम बचपन से सुनते आ रहे हैं। सही भी है। जब तक शरीर स्वस्थ नहीं होगा, आप कुछ बेहतर कर नहीं पायेंगे। अगर आप अपनी हुनर का इस्तेमाल अस्वस्थता के कारण नहीं कर पा रहे हैं, तो कहीं न कही इससे राष्ट्र को क्षति पहुंचती है। शायद यही कारण है कि मन को धारण करने वाली इस काया को निरोगी बनाये रखने पर सदियों से हमारे पूर्वज ध्यान देते रहे हैं।
दुर्भाग्य से आज हिन्दुस्तान का स्वास्थ्य खराब होता जा रहा है। इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं। महत्वपूर्ण कारण यह है कि भारत में व्यवस्थित एवं कारगर स्वास्थ्य नीति ही नहीं हैं। बीच-बीच में सरकार नीतियां बनाती-बिगाड़ती रही हैं, लेकिन वे कारगर सिद्ध नहीं हो पायी हैं। ऐसे में यह सोचनीय प्रश्न है कि भारत की जनता को कैसे स्वस्थ रखा जाए।
मानव स्वभावतः स्वस्थ रहना चाहता है। कई बार परिस्थितियां ऐसी बनती है वह अपने शरीर को स्वस्थ नहीं रख पाता। भारत जैसे देश में लोगों को बीमार करने वाली और लंबे समय तक उन्हें बीमार बनाये रखने वाली परिस्थितियों की लम्बी-चौड़ी लिस्ट है। लेकिन इन सभी सूचियों में एक कॉमन कारण है अर्थाभाव। यानि भारत के लोग धनाभाव में अपना ईलाज व्यवस्थित तरीके से नहीं करवा 
पाते हैं। 
देश में मरीजों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। उसी अनुपात में लोगों का हेल्थ बजट भी बढता जा रहा है। दूसरे मद में तो आदमी अपनी बजट में कटौती कर भी सकता है लेकिन हेल्थ ऐसा मसला है जहां पर जीवन-मरण का प्रश्न रहता है, ऐसे में हेल्थ के नाम पर जितना खर्च करना पड़ता है, वह करना ही पड़ता है। इसके लिए चाहे घर बेचना पड़े, देह बेचना पड़े अथवा किसी की गुलामी ही क्यों न करनी पड़े, सबकुछ करने के लिए आदमी तैयार रहता है।
यह बात भारत सरकार भी मानती है कि यहां के लोगों की आर्थिक स्थिति बहुत खराब है। इस बात को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार देश को स्वस्थ रखने के लिए कई तरह की हेल्थ स्कीमे चलाती रहती हैं। बावजूद इसके परिणाम ढाक के तीन पात वाले ही हैं। ऐसी स्थिति में भारत की पूरी हेल्थकेयर नीति ही कटघरे में आती हुई प्रतीत हो रही है।
पिछले दिनों नई मीडिया में और अब तो मेन स्ट्रीम मीडिया में भी भारत की पूरी हेल्थकेयर नीति को लेकर बहस चल पड़ी है। फेसबुक के माध्यम से ‘कंट्रोल एम.एम.आर.पी’ ( कंट्रोल मेडिसिन मैक्सिमम रिटेल प्राइस ) नामक एक नेशनल कैंपेन चलाया जा रहा है। जिसमें देश के विचारवान लोग हेल्थ नीति पर खुल कर चर्चा कर रहे हैं। इन चर्चाओं के परिणाम स्वरूप कुछ चौकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। मसलन दवा कंपनियां अपनी एम.आर.पी लागत मूल्य से 1100 प्रतिशत ज्यादा तक लिख रही हैं। इस बात की पुष्टी भारत सरकार का कार्पोरेट मंत्रालय भी कर चुका है। दवा कंपनियां ब्रांड के नाम पर मरीजों को लूट रही हैं। जैसे एक साल्ट से निर्मित दवा को कोई कंपनी 50 में बेच रही है तो कोई 100 में। दवाइयों की क्वालिटी संदिग्ध हैं। दूसरे देशों में बैन हो चुकी दवाइयां भारत में धड़ल्ले से बेची जा रही हैं। डाक्टर अनावश्यक जांच लिखते हैं। डॉक्टर घुस खाकर दवाइयां लिखते हैं। दवा दुकानदार जेनरिक के नाम पर लोगों को लूट रहे हैं। सरकारी अस्पतालों में दवाइयां उपलब्ध नहीं होती। इस तरह के सैकड़ों तथ्य सामने आ रहे हैं। इन तथ्यों को और गहराई से जानने की जरूरत है।
सबसे परेशान करने वाला तथ्य यह है कि सरकार ने इन सभी समस्याओं को दूर करने के लिए राष्ट्रीय औषध मूल्य नियंत्रण प्राधीकरण नामक एक स्वतंत्र नियामक बना रखा है। जिसकी जिम्मेदारी है कि वह देश में बेची जा रही दवाइयों के मूल्यों को नियंत्रित करे। इसके लिए बहुत सुन्दर कानून भी है। दवा कंपनियों द्वारा मनमाने तरीके से दवाइयों के रेट तय करना इस बात की ओर इशारा कर रहा है कि यह प्राधीकरण अपने कार्यों को करने में पूरी तरह असफल हो चुका है।
इन सभी चर्चाओं को समझने के बाद एक और महत्वपूर्ण सवाल कौंध रहा है, देश में सरकारी डॉक्टर हैं, सरकारी अस्पताल हैं...तो उसी अनुपात में सरकारी केमिस्ट क्यों नहीं हैं?
( लेखक कंट्रोल एम.एम.आर.पी कैंपेन चला रही संस्था प्रतिभा जननी सेवा संस्थान के नेशनल को-आर्डिनेटर व युवा पत्रकार हैं )

दवा कंपनियों का खुल्लम खुल्ला डाका

कंट्रोल एम.एम.आर.पी अभियान के तहत

आशुतोष कुमार सिंह

देश में फैले दवाइयों के मकड़जाल को जितना समझने का प्रयास कर रहा हूं, उतना ही उलझते जा रहा हूं.इसकी गहराइयों में जितना डूब रहा हूं, कुछ देर बाद मालुम चल रहा है कि अभी तो मैं ऊपर ही ऊपर तैर रहा हूं. खैर, जब ओखल में सिर डाल ही दिया हूं तो मूसल से क्यों डरू.
 
जरा गौर से सिपला कंपनी की इस रेट लिस्ट को पढिए. तीन दवाइयों को हाइलाइट किया गया है.उस पर जरा और गौर फरमाइए. एमसिप 500 मिली. के एक इंजेक्शन का एम.आर.पी 72 रूपये बताया गया है और इसी का स्टॉकिस्ट प्राइस 7.42 रुपये है। सेटसिप टैबलेट प्रति 10 टैबलेट का एम.आर.पी 33.65 है जबकि स्टॉकिस्ट प्राइस 1.88 रूपये है.इसी तरह सेफटाज इंजेक्शन का मूल्य देखिए एम.आर.पी 355 रूपये और स्टॉकिस्ट प्राइस 66 रूपये है. सरकारी नियम यह कहता है कि कंपनियां लागत मूल्य से अधिकतम 100 प्रतिशत तक एम.आर.पी रख सकती हैं.इस नियम का पालन कितना हो रहा है.आप खुद देख सकते हैं. 
पिछले डेढ़ महीने से चल रहे ‘कंट्रोल एम.एम.आर.पी’ अभियान का कुछ सकारात्मक असर दिखने तो शुरू हुए हैं लेकिन यह ऊंट के मुंह में जीरा का फोरन भी नहीं है। सरकार जल्द ही नेशनल फार्मास्यूटिकल्स पॉलिसी 2011 लाने वाली है. इसमें भी गरीबों के हितों की रक्षा होता नज़र नहीं आ रहा है.

मुनाफाखोर दवा कंपनियां सावधान!


मीडिया जाग रही है, देश भी जागेगा...


आशुतोष कुमार सिंह
दवाइयों में मची लूट के बारे में पिछले एक महीने से लगातार लिखने-पढ़ने, सुनने-सुनाने के बाद अब देश की मुख्यधारा की मीडिया इस मसले को उठाने में जुट गयी है। एक महीने पहले ‘कंट्रोल एम.एम.आर.पी.’ यानी कंट्रोल मेडिसिन मैक्सीमम रिटेल प्राइस अभियान को जब हमलोगों ने शुरू किया था तब ऐसा लगा था कि पता नहीं कब तक इस जटिल मसले को समझाने में हम सफल हो पायेंगे। लेकिन मीडिया मित्रों से मिले सहयोग ने इस मसले को बहुत जल्द ही राष्ट्रीय मुद्दा बनाने में मदद की है। रायपुर से प्रकाशित सांध्य दैनिक जनदखल ने सर्वप्रथम इस मसले पर अपनी जोरदार दख़ल दिया। उसके बाद तो प्रत्येक दिन देश के किसी न किसी कोने से इस तरह की खबरे आने लगी। इस पूरे मुहिम में नई मीडिया ने बहुत जबरदस्त भूमिका अदा की है। ‘बियोंड हेडलाइंस’ ने इस मुहिम से जुड़े सभी तथ्यों को जनता के सामने लाने में अहम योगदान दिया है। साथ ही साथ प्रवक्ता डॉट कॉम, जनोक्ति डॉट कॉम, इनसाइड स्टोरी डॉट.कॉम एवं लखनऊ जनसत्ता डॉट कॉम ने इस मसले को प्रमुखता से उठाया है।
‘फेसबुक’ के माध्यम से 22 जून 2012 विधिवत रूप से शुरू हुआ यह नेशनल कैंपेन आज देश की मीडिया के लिए राष्ट्रीय मुद्दा बन चुका है। आज यानी ठीक एक महीने दो दिन बाद इस मसले को दैनिक हिन्दुस्तान ने अपने सभी संस्करणों में प्रमुखता से प्रकाशित किया है। दिल्ली संस्करण में तो यह खबर लिड स्टोरी बनी है। इसी तरह आज 24.07.2012 को रांची से प्रकाशित आई नेक्स्ट ने ‘एम.आर.पी का खेल’ शीर्षक से इस मसले को अपने पहले पृष्ठ पर स्थान दिया है और विस्तृत खबर पृष्ठ 6 पर प्रकाशित किया है ।
अभी ताजा अपडेट यह है कि इस मसले पर जी न्यूज पर खबर चलाई जा रही है। इस पूरी मुहिम में न्यूज एजेंसी वार्ता का बहुत अहम सहयोग मिला है। वार्ता ने अपने यहां से सबसे पहले इस मुहिम के बारे में खबर जारी किया था।
मैं उन सभी मीडिया मित्रों के सहयोग का आभारी हूं, जो फेसबुक पर इस मुहिम को आगे बढाने में हमें प्रोत्साहित कर रहे हैं।
दवा कंपनियों की मुनाफेबाजी व सरकारी हेल्थ केयर नीति की पोल जिस तरीके से एक के बाद एक खुलती जा रही है, निश्चित है कि अब तो सरकार व कंपनियां दोनों जनहित में अपने रवैये को बदलने के लिए मजबूर होंगी।
हमें आशा है कि जिस तरह से इस मसले पर मीडिया जाग रही है, उससे प्रेरित होकर जनता भी जरूर जागेगी।
(लेखक कंट्रोल एम.एम.आर.पी (Control M.M.R.P) अभियान चला रही संस्था प्रतिभा जननी सेवा संस्थान के नेशनल-को-आर्डिनेटर व युवा पत्रकार हैं)
संपर्कःpratibhajanani@gmail.com

देश को लूट रही हैं सबसे बड़ी दवा कंपनी


आशुतोष कुमार सिंह

सिप्रोफ्लाक्सासिन 500 एम.जी और टिनिडाजोल 600 एम.जी साल्ट से निर्मित दवा जिसे सिपला, सिपलॉक्स टी जेड के नाम से बेचती है। लूज मोसन की रामवाण दवा है। सरकार ने जिन 74 दवाइयों को कंट्रोल्ड प्राइस की श्रेणी में रखा है, उसमें एक यह भी है। एन.पी.पी.ए ( नेशनल फार्मास्यूटिकल्स प्राइसिंग ऑथरिटी) द्वारा 23 मार्च 2011 को जारी कंपेडियम ऑफ द प्राइसेस ऑफ शिड्यूल्ड ड्रग्स फिक्स्ड/रिवाइज्ड बाई एन.पी.पी.ए के सातवे एडिशन के पृष्ठ संख्या 70 के क्रम संख्या 166 में इस दवा की सरकारी सेलिंग प्राइस-25.70 पैसा प्रति 10 टैबलेट बतायी गयी है। जिसका विवरण गैजेट संख्या 2500 (ई) है, जिसका नोटिफिकेशन 11.10.2010 को निकाला गया था। शर्म और लानत की बात यह है कि देश की सबसे बड़ी कंपनी का दावा करने वाली सिपला इस दवा को पूरे देश में 100 रूपये से ज्यादा में बेच रही हैं...यानी प्रत्येक 10 टैबलेट वह 75-80 रूपये ज्यादा उपभोक्ताओं से वसूल कर रही है। इस राष्ट्र को स्वस्थ बनाने का दावा करने वाले कहां हैं...है कोई जवाब। आखिर सबके मुंह पर ताला क्यों लग गया है?